है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
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Harivansh Rai Bachchanकल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से
, रसों से जो सना थाढह गया वह तो जुटाकर ईंट
, पत्थर, कंकड़ों कोएक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ
-नील नीलमका बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक
, मनोरमप्रथम ऊषा की किरण की लालिमा
-सी लाल मदिराथी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या घड़ी थी
, एक भी चिंता नहीं थी पास आईकालिमा तो दूर
, छाया भी पलक पर थी न छाईआँख से मस्ती झपकती
, बात से मस्ती टपकतीथी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार
, मानापर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय
, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागावैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर
-अवनि को मत्तता के गीत गा-गाअंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय
, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आएपास क्या आए
, हृदय के बीच ही गोया समाएदिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना
, गुल मचानानाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि
, तुझे होगा बतानाजो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
यात्रा और यात्री
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हरिवंश राय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan)साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता
-भ्रमातापाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं
, यह चंचला हैएक कण भी
, एक क्षण भीएक थल पर टिक न पाता
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही
, मुसाफिर!साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था
घास मखमल
-सी जहाँ थीमन गया था लोट सहसा
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था
पग परीक्षा
, पग प्रलोभनज़ोर
-कमज़ोरी भरा तूइस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही
, मुसाफिरसाँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!शूल कुछ ऐसे
, पगो मेंचेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते
, हमेशा जबकि गड़तेशुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर
, ऐसेकंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही
, मुसाफिरसाँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!सूर्य ने हँसना भुलाया
,चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है
,देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही
, मुसाफिरसाँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ
, झूठ शायदस्वप्न
, पर चलना अगर हैझूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही
, मुसाफिरसाँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर
!
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